वर्षों बेकारी के आलम में
भटकने के बाद -
उसे तीन सौ रुपये की मास्टरी मिली।
इधर दो -दो बेटियाँ जवान
होती जा रहीं हैं।
वह सोचता है ,बेटी के बारे में
बेटी बड़ी हो रही है
और वह दरक रहा है।
इधर बच्चों को पढ़ाता है -
दहेज़ बुरी चीज है
और उधर खुद दहेज़ के बिना
कोई लड़का उसे अपनी बेटी के
शादी के लिए नहीं मिल रहा है।
उसके पाँव के जूते चरमरा रहे है ,
और वह परेशां बड़बड़ा रहा है
कितना अच्छा होता -
यदि वह लड़की का बाप न होता।
लड़की को देखता हूँ -
रोज उस मंदिर में ,
पत्थर के सामने गिड़गिड़ाती है
उसके बाप को उसके लिए
कोई वर मिल जाए
पर पत्थर तो पत्थर ही होता है
वह लड़की प्रतिक्षा करती है -
पत्थर के पिघलने की।
शायद वह सोचती है
पत्थर से कोई इन्सान जैसा
भगवान निकलेगा।
वह उसके सर पर हाथरख कर
एवमस्तु ! कहकर अंतर्ध्यान हो जायेगा
और उसे घर आने पर -
अपनी मनोकामना पूरी होते हुए दिखेगी
पर वर्षों प्रतीक्षा के बाद भी
कोई भगवान नहीं आया।
पत्थर के फेर में हमने कितने युग
बरबाद किये
अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रख दिए
यवन , तुरक के हाथों में।
हमें वे लुटते गए
और हम -
पत्थरो के आगे झुकते गए।
कितना अच्छा होता
यदि इस कुँवारी लड़की को मालूम होता
कि ये पत्थर अनंतकाल तक
मौन ही रह जाएँगे।
सिर्फ एक जुटता ,अन्तर्विरोधों की
समझदारी की भाषा ही
हमें कुछ दे सकती है।
संवेदना शून्य विचारों की धरातल पर
खड़े हुए इस समाज को
ठुकराने के लिए
हमे एकजुट होना पड़ेगा।
कितना अच्छा होता
यदि यह मालूम हो जाये
हर कुँवारी लड़की ,कुँवारे लड़के व उसके बाप को।
(लगभग ३२ वर्ष पूर्व प्रकाशित स्वरचित कविता )