जाट आरक्षण : इतिहास, वर्तमान और भविष्य (?)
April 28, 2015
जबसे सुप्रीम कोर्ट ने जाट आरक्षण रद्द कर दिया हैं, तभी से यह सम्भावना जताई जा रही हैं कि आने वाले दिनों में सरकार को फिर से एक दबे हुए आन्दोलन से जूझना पड़ सकता हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने 17 मार्च 2015 को एक अहम फ़ैसला देते हुए जाट समुदाय को दिए गए आरक्षण को रद्द कर दिया। पिछली यूपीए सरकार ने भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद की विशेषज्ञ समिति की सिफारिश पर जाटों को आरक्षण देने का फ़ैसला किया था। अदालत ने इसे ग़लत ठहराते हुए कहा है कि तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग की रिपोर्ट को नजरअंदाज़ किया। कोर्ट का कहना था कि ज़ाति आरक्षण देने के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन पिछड़ापन निर्धारित करने के लिए यह अकेले पर्याप्त नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद से ही जाट समुदाय में एक तूफ़ान उठा हैं और अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति ने आरक्षण नहीं मिलने पर आन्दोलन का ऐलान कर दिया हैं। इसी के साथ सरकार और विपक्ष द्वारा जाट आरक्षण पर एक बार फिर राजनीतिक ध्रुवीकरण की शुरुआत हो गई हैं।
क्या हैं पिछड़ा आरक्षण नीति?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। बशर्ते, ये सिद्ध किया जा सके कि वे औरों के मुकाबले सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं।
क्योंकि अतीत में उनके साथ अन्याय हुआ है, ये मानते हुए उसकी क्षतिपूर्ति के तौर पर, आरक्षण दिया जा सकता है। साथ ही अगर समाज का एक हिस्सा कम तरक़्की करता है-जिसके ऐतिहासिक कारण हैं, तो इसका असर न सिर्फ़ देश की प्रगति बल्कि लंबे समय में समाज पर भी पड़ेगा।
आरक्षण देने का तरीक़ा
इसका तरीक़ा ये होता है कि राज्य अपने यहां एक पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन करे। जिसका काम राज्य के अलग अलग तबक़ों की सामाजिक स्थिति का ब्यौरा रखना है। ओबीसी कमीशन इसी आधार पर अपनी सिफारिशें देता है। अगर मामला पूरे देश का है तो राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग अपनी सिफारिशें करें। इस मामले में ऐसा नहीं हुआ था।
1993 के मंडल कमीशन केस में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की पीठ ने बताया था कि किस-किस आधार पर भारतीय संविधान के तहत आरक्षण दिया जा सकता है। बाला जी मामले का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जाति अपने आप में कोई आधार नहीं बन सकती। उसमें दिखाना पड़ेगा कि पूरी जाति ही शैक्षणिक और सामाजिक रूप से बाक़ियों से पिछड़ी है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हम नहीं समझते कि जाट अन्य लोगों से पिछड़े हैं।
आरक्षण में फर्क क्यों ?
ऐसा देखा गया है कि किसी समुदाय को किसी राज्य में आरक्षण है तो किसी अन्य राज्य या केंद्र में नहीं। मंडल कमीशन केस में सुप्रीम कोर्ट ने ये साफ कर दिया था कि अलग अलग राज्यों में अलग अलग स्थिति हो सकती है।
मान लें कि किसी पहाड़ी इलाके में मूलभूत सुविधाओं की कमी है तो ये हो सकता है कि वहां पहाड़ियों के लिए 70 फीसदी तक आरक्षण का प्रावधान कर दिया जाए। लेकिन इसे वाजिब ठहराना होगा। इसके पीछे तार्किक आंकड़ें होने चाहिए। राजस्थान के मामले में हाई कोर्ट ने गुर्जरों के लिए आरक्षण की मांग के मामले में तार्किक आंकड़ें लाने के लिए कहा था, जिसके लिए एक आयोग भी बना था।
आरक्षण की अधिकतम सीमा
1963 में बाला जी मामले के फ़ैसले को दोहराते हुए इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आम तौर पर 50 फ़ीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं हो सकता क्योंकि एक तरफ हमें मेरिट का ख़्याल रखना होगा तो दूसरी तरफ हमें सामाजिक न्याय को भी ध्यान में रखना होगा। लेकिन इसी मामले में जस्टिस जीवन रेड्डी ने ये साफ़ तौर पर कहा है कि विशेष परिस्थिति में स्पष्ट कारण दिखाकर सरकार 50 फ़ीसदी की सीमा रेखा को भी लांघ सकती है। हालांकि सामान्य तौर पर 50 फ़ीसदी का नियम है कि इससे ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए।
क्या ये अंतिम फैसला है
ये दो जजों की पीठ का फैसला है। इससे अगर कोई संतुष्ट नहीं है तो इसे पांच जजों की पीठ के सामने चुनौती दी जा सकती है। चूंकि फ़ैसले में नौ जजों की पीठ वाले मंडल कमीशन केस का जिक्र किया गया है तो मुमकिन है कि सरकार इसे बड़ी पीठ के सामने ले जाए। यह एक महत्वपूर्ण मामला है। मंडल कमीशन के फ़ैसले को आए 20 साल हो चुके हैं और क़ानून में भी चीज़ों को देखने का तरीक़ा बदलता रहता है।
जाट आरक्षण का इतिहास
जाट आरक्षण हमेशा से जाट समुदाय की मुख्य मांग रहा हैं, पर 2007 में अखिल भारतीय जाट महासभा के सम्मेलन में बहुत से बड़े जाट नेताओं की मौजूदगी में आरक्षण की मांग को हवा मिली और इसने एक बड़े आन्दोलन का रूप ले लिया। तब से अब तक बहुत सी घटनाएं हुई।
अभी तक जाट आरक्षण के मुद्दे पर हुई कुछ मुख्य घटनाएं:
1998
पूर्व प्रधानमंत्री इन्दर कुमार गुजराल की सरकार के समय पिछड़ी जातियों के लिए राष्ट्रीय आयोग (NCBC) ने अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणी में जाटों को शामिल किए जाने की सिफारिश की, हालांकि, गुजराल सरकार ने सिफारिशों पर ध्यान नही दिया।
अगस्त 1999
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ओबीसी श्रेणी के तहत उन्हें आरक्षण देने, राजस्थान के जाटों को पिछड़े वर्ग का दर्जा देने का वादा किया। भाजपा ने राज्य में 25 सीटों में से 16 जीती। इस प्रकार जाट आरक्षण के राजनीतिकरण की शुरुआत हो गई।
अक्टूबर 1999
वाजपेयी सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणी में राजस्थान के जाटों को आरक्षण देने के अपने वादे को पूरा दिया (दो जिलों भरतपुर और धौलपुर को छोड़कर)। इस के बाद, अन्य राज्यों में भी जाटों को आरक्षण की मांग शुरू हो गई।
2004
2004 के लोकसभा चुनावों के दौरान, जाटों के लिए आरक्षण के वादे को एक बार फिर राजनीतिक दलों ने हवा दी। चुनावों के बाद, आरक्षण की मांगों को बल नही मिला, तब छोटे आंदोलन और विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए।
मार्च 2007
9 मार्च 2007 को दिल्ली में तालकटोरा स्टेडियम में आयोजित अखिल भारतीय जाट महासभा के सम्मेलन में, इसके अध्यक्ष, चौधरी दारा सिंह की अध्यक्षता में बुलंद आवाज में जाट आरक्षण की मांग उठाई गई। इस बार सम्मलेन में कई केंद्रीय और राज्य के मंत्रियों और सांसदों ने भाग लिया जिसके कारण यह सम्मलेन अधिक महत्वपूर्ण था।
2008
चौधरी यशपाल मलिक ने जाट आरक्षण की मांग के लिए लड़ने के हेतु अखिल भारतीय जाट महासभा से अलग अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति (ABJASS) का गठन किया। अपनी स्थापना के बाद से, संगठन ने कई विरोध प्रदर्शनों और रैलियों का आयोजन किया है। जिसके परिणामस्वरूप अक्सर पुलिस के साथ संघर्ष हुए
13 सितम्बर 2010
जाट आरक्षण संघर्ष समिति ने हिसार से 15 किलोमीटर दिल्ली हाइवे पर मय्यड़ गांव में जाम लगाया। देश भर में 62 जगहों पर रेलवे व हाइवे पर प्रर्दशन हुए। आंदोलन के दौरान मय्यड़ में लाडवा निवासी सुनील श्योराण की गोली लगने से मौत। तत्कालीन पुलिस अधीक्षक सुभाष यादव पर हत्या का हुआ था मामला दर्ज।
5 मार्च 2011
देश भर के 15 रेलवे ट्रैक के पास धरने पर बैठे थे जाट समुदाय के लोग।
23 मार्च 2011
फतेहाबाद के मेहुवाला में भूख हड़ताल के दौरान विजय कड़वासरा की मौत।
3 मई 2011
केन्द्र सरकार द्वारा गजेट नोटिफिकेशन कर राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को पुनर्विलोकन का अधिकार देना।
29 मई 2011
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से देश भर में जाट संकल्प यात्रा की शुरूआत।
13 सितम्बर 2011
हरियाणा में सुनील श्योराण की शहादत दिवस पर रैली व 19 फरवरी 2012 से आन्दोलन की घोषणा।
19 फरवरी 2012
मय्यड़ के नजदीक रामायण ट्रैक पर आंदोलन की शुरूआत
6 मार्च 2012
पुलिस अधीक्षक अनिल धवन ने भूख हड़ताल पर बैठे आंदोलनकारियों को उठाया। लोगों ने विरोध किया। लाठीचार्ज, आंसू गैस के गोले, पथराव। इस दौरान मय्यड़ के संदीप कड़वासरा की गोली लगने से मौत। शव को रेलवे ट्रैक पर रख कर जाट समुदाय ने किया आंदोलन। 12 मार्च 2012 को संदीप कड़वासरा की अंत्येष्टि।
13 सितम्बर 2012
सुनील श्योराण की दूसरी वरसी। खापों द्वारा 15 दिसम्बर से आन्दोलन की चेतावनी।
24 जनवरी 2013
हरियाणा में सरकार ने जाटों को 10 प्रतिशत अलग से आरक्षण में शामिल किया।
5 मार्च 2013
संसद के बजट सत्र के दौरान जंतर-मंतर पर देश भर में 55 जगहों पर धरने की शुरूआत 31 मार्च तक 55 जगहों पर धरना व जंतर-मंतर पर लगातार 10 मई 2013 तक सं सद के बजट सत्र की समाप्ति तक धरना।
6 मार्च 2013
मय्यड़ में हरियाणा से जाट आरक्षण आंदोलन की शुरूआत व कुछ ही समय में पूरे हरियाणा में चरणबद्ध तरीके से आन्दोलन को फैलाना।
10 मई 2013
प्रधानमंत्री कार्यालय मंत्री वी. नारायण सामी से जल्द आरक्षण घोषित करने का वायदा।
20 अगस्त 2013
केंद्र सरकार द्वारा जाट आरक्षण के लिए केंद्र के नेताओं की कमेटी गठित की।
13 सितम्बर 2013
मय्यड़ हिसार में सुनील श्योराण शहादत दिवस पर राष्ट्रीय स्तर की रैली का आयोजन, 30 अक्टूबर तक आरक्षण ना मिलने पर दिल्ली, राजस्थान व मध्य प्रदेश में जाटों से कांग्रेस को वोट ना देने का संकल्प का आहवान।
19 दिसम्बर 2013
केंद्रीय मंत्रीमंडल द्वारा राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को 9 राज्यों के जाटों की आरक्षण की माँग पर राज्यों के आधार पर दी सुनवाई शुरू करने का निर्देश।
फरवरी 2014
राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग द्वारा 9 राज्यों की सुनवाई शुरू।
मार्च 2014
राष्ट्रीय चुनाव के लिए अधिसूचना जारी होने से एक दिन पहले यूपीए सरकार ने जाट समुदाय के लिए आरक्षण को मंजूरी दे दी। कांग्रेस ने चुनावों में जाटों का समर्थन प्राप्त करने के लिए आशा व्यक्त की। पिछड़ा वर्ग के लिए राष्ट्रीय आयोग (NCBC) इसके खिलाफ सिफारिश की।
अप्रैल 2014
जाटों को दिया गया अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण के खिलाफ दायर एक जनहित याचिका के जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कोटा देने से केंद्र को रोकने के लिए मना कर दिया।
अगस्त 2014
नई राजग सरकार ने जाटों को ओबीसी कोटा देने के लिए तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के फैसले का समर्थन किया।
17 मार्च 2015
सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी में जाटों को शामिल करने के केंद्र सरकार के फैसले को निरस्त कर दिया था।
22 मार्च 2015
जाटों ने आरक्षण रद्द होने के विरोध में आन्दोलन की चेतावनी दी।
26 मार्च 2015
जाट नेता और आरक्षण समिति के पदाधिकारी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिले। सरकार ने साथ रहने का आश्वासन दिया।
18 अप्रैल 2015
जाटों ने आन्दोलन के साथ ही राजधानी का पानी और अन्य सुविधाएँ रोकने की चेतावनी दी।
जाट आरक्षण देने वाले राज्य
मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश में अधिसूचना क्रमांक एफ-9-39/99/54-1 दिनाँक 24-1-2002 से जाट जाति को अनुक्रमांक 90 पर पिछड़ा वर्ग में जोड़ा गया है।
राजस्थान
1 अगस्त 1999 को जयपुर में विशाल महासम्मेलन में ’आरक्षण नहीं तो वोट नहीं’ का नारा देकर आरक्षण का बिगुल बजा दिया। आरक्षण पाना जाटों के लिये जीवन मरण का प्रश्न बन गया। लोकसभा चुनाव के वक्त अटल बिहारी वाजपेयी व सोनिया गांधी ने चुनाव पश्चात आरक्षण देने की घोषणा की। 20 अक्टूबर 1999 को भाजपानीत केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने सर्वसम्मति से जाटों को आरक्षण देने की घोषणा की। दो दिन पश्चात राज्य मंत्री मण्डल ने भी जाटों को अन्य पिछडा वर्ग का दर्जा दे दिया। 27 अक्टूबर को केन्द्र सरकार तथा 3 नवंबर 1999 को राज्य सरकार ने इस सम्बन्ध में अधिसूचना जारी कर दी।
उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश में भी जाट समुदाय राज्य स्तर पर अन्य पिछड़ा जाति के आरक्षण का लाभ लेता हैं। उत्तर प्रदेश में 1999 से 2000 के मध्य में जाटों को आरक्षण सूची में स्थान मिला।
इसके अलावा दिल्ली और हिमाचल प्रदेश में भी जाट आरक्षण के लाभार्थी हैं। जब अन्य प्रदेशों ने जाटों को आरक्षण दिया तो हरियाणा के जाटों ने भी जोर शोर से खुद को आरक्षण का अधिकारी कहा और जाट आरक्षण के लिए एक बड़े आन्दोलन की शुरुआत हुई जो हिसंक रूप में बदल गई। जाटों और सरकार के बीच के संघर्ष में कई जानें गई और बहुत से लोग अपना घरबार छोड़ कर भूख हड़ताल और धरनों पर जमे रहे। अंतत जनवरी 2013 में हरियाणा सरकार को समुदाय की मांग के सामने झुकना पड़ा और 10% का आरक्षण देना पड़ा।
आरक्षण पर जाटों का पक्ष
जाटों को आरक्षण मिलना चाहिए कि नहीं इस पर भले ही न्यायालय, राजनीति और समाज एकमत न हो पर जाट समुदाय आरक्षण की मांग पर अडिग हैं। जाटों के अनुसार आरक्षण के लिए जो भी शर्तें होती हैं, उनके अनुसार जाट आरक्षण पाने का अधिकारी हैं।
एक समुदाय को पिछड़ा वर्ग का दर्जा देने के लिए, भारत संविधान अनुच्छेद 15 (4) और 340 (1) के तहत केवल दो स्थितियों के लिए आरक्षण प्रदान करता है – सामाजिक पिछड़ापन और शैक्षणिक पिछड़ापन।
जाट नेताओं ने दावा किया कि यह समुदाय आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ा होने के कारण सामाजिक न्याय के तहत आरक्षण का हकदार है। जयंत चौधरी आरक्षण पर अपना पक्ष रखते हैं, “सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जाति एक महत्वपूर्ण कारक है, लेकिन आरक्षण के लिए यही एक आधार नहीं हो सकता है। जबकि देश में ज्यादातर सभी जातियों को आरक्षण जाति के आधार पर ही मिला है”।
वह आगे कहते हैं, “कोर्ट ने कहा है कि जाट जैसी राजनीतिक रूप से संगठित जाति को ओबीसी सूची में शामिल करना अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सही नहीं है। जिससे सवाल उठता है कि क्या देश में राजनीतिक रूप से संगठित होना गलत है? सुप्रीम कोर्ट ने बिना कोई आंकड़ो और तथ्य के ओबीसी कमीशन की यह बात तो स्वीकार कर ली कि जाट सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े नहीं हैं। जबकि भारतीय सामाजिक विज्ञान एवं अनुसंधान परिषद (आईसीएसएसआर) की उस रिपोर्ट को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जिसमें आंकड़ो और तथ्यो के साथ जाटों को आरक्षण देने की बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ओबीसी श्रेणी में नई-नई जातियों को लगातार शामिल किया जा रहा है, किसी भी जाति को अभी तक इसमें से बाहर नहीं निकाला गया है। ऐसे में नये-नये ओबीसी श्रेणी में शामिल हुए जाटों पर ही यह मार क्यों?”।
सामाजिक न्याय के लिए नीतियां निर्धारित करना और पुरानी नीतियों की रक्षा करना किसी भी सरकार का संवैधानिक दायित्व होता है। भारत जैसे लोकतान्त्रिक राष्ट्र में जहाँ जनप्रतिनिधि चुनकर आते है वहाँ राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जैसी संस्थाए अपने दिए सुझावों और रिपोर्ट्स को लागू करने के लिए केंद्र सरकार को बाध्य नहीं कर सकती है।
सरकार का पक्ष
सरकार ने सुप्रीमकोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल कर जाट आरक्षण रद करने वाला फैसला निरस्त करने की मांग की है। जाटों को ओबीसी आरक्षण की पैरवी करते हुए सरकार ने कहा है कि वह संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत पिछड़ों के लिए विशेष प्रावधान कर सकती है। पिछड़ों के लिए प्रावधान करने का सरकार का यह अधिकार राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की राय के अधीन नहीं है। न ही सरकार आयोग की राय मानने को बाध्य है।
सरकार की ओर से दाखिल पुनर्विचार याचिका में कहा गया है कि इस बात के पर्याप्त आंकड़े हैं जिनसे साबित होता है कि जाट इन राज्यों में पिछड़े हैं। सरकार ने कहा है कि फैसले में शैक्षणिक और सामाजिक पिछड़ेपन को अलग-अलग मानना और यह कहना गलत है कि शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर सामाजिक पिछड़ापन तय नहीं हो सकता। शैक्षणिक पिछड़ापन सामाजिक पिछड़ेपन से जुड़ा हुआ है। सरकार ने कहा है कि आंकड़ों को दस साल पुराना बताकर जाटों का आरक्षण निरस्त करना सही नहीं है क्योंकि उसके बाद के कोई नए आंकड़े मौजूद नहीं हैं।
सरकार ने फैसले का विरोध करते हुए कहा है कि यह कहना गलत है कि आजतक सिर्फ ओबीसी वर्ग में जातियों को शामिल किया गया है किसी को बाहर नहीं निकाला गया है। बाहर निकलने की बात तब होती जबकि किसी आंकड़े में यह साबित होता कि अमुक वर्ग को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिल चुका है और इसे अब आगे लाभ की जरूरत नहीं है। बिना किसी आंकड़े या आधार के यह बात नहीं कही जा सकती। जाटों के आरक्षण का फैसला जल्दबाजी में लिए जाने के तर्क का विरोध करते हुए कहा है कि इसकी प्रक्रिया 2011 में भी शुरू हो गई थी। वैसे भी इन नौ राज्यों में जाट पहले से ही ओबीसी सूची में शामिल हैं।
जाट आरक्षण रद्द होने में किसकी गलती?
आरक्षण रद्द होने के बाद अब अगला कदम क्या होगा, यह तो आने वाले समय में साफ़ हो जाएगा पर अगर अतीत में झाँका जाए तो क्या वाकई लोकसभा चुनाव से पहले राजनीतिक लाभ लेने की हड़बड़ी में आरक्षण लागू करने में तत्कालीन सरकार कोई चूक हो गई जो सुप्रीम कोर्ट की नजर में आ गई, या जैसा कि विपक्ष का आरोप हैं कि वर्तमान सरकार ने जाट आरक्षण की पैरवी में ढिलाई बरती? खैर जो भी हो अभी तक का सच यह हैं कि लंबे समय से आरक्षण की लड़ाई लड़ रहा जाट समुदाय एक बार फिर वापस उसी मुहाने पर खड़ा हैं जहाँ से उसका आन्दोलन का सफर शुरू हुआ था।
जाट आरक्षण को पाने में अभी कितना और समय लगेगा यह तो नहीं पता पर एक बार फिर जाट राजनीति को हवा जरूर मिल गयी हैं जो एक छिपे हुए तूफ़ान का इशारा कर रही हैं।